Monday, 21 December 2015

प्यार का पहला खत लिखने में वक़्त तो लगता है

प्यार का पहला खत लिखने में वक़्त तो लगता है
नये परिंदो को उड़ने में वक़्त तो लगता है

जिस्म की बात नही थी उनके दिल तक जाना था
लंबी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है

गाँठ अगर लग जाये तो फिर रिश्ते हो या डोरी
लाख करे कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है

हमने इलाज-ए-जख्म-ए-दिल तो ढूँढ लिया लेकिन
गहरे ज़ख़्मो को भरने में वक़्त तो लगता है
- JAGJIT SINGH

Sunday, 20 December 2015

माझी- द माउन्टेनमैन: शानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद

दुनिया के पहले पहाड़तोड़वा, ‘दशरथ माझी’ के जीवन पर बनीं हिंदी फिल्म ‘माझी द माउन्टेनमैन’ एक ऐसी बायोपिक फिल्म है, जो प्रेम के उद्दात स्वरूप को प्रस्तुत करती है। प्रेम का यही उद्दात स्वरूप शानदार और जबरदस्त है इसलिए जिंदाबाद है। लेकिन इस प्रेम को जितना जिंदाबाद होना चाहिए था उतना नहीं हो पाया। क्योंकि यह एक मूस खाने वाली मुसहर जाति अर्थात दलित जाति का प्रेम था। प्रसंग बस यहाँ एक प्रसिद्द गीत का जिक्र करना लाजमी होगा ‘तवायफ कहाँ किसी से कभी मुहब्बत करती है, मगर जब करती है..तो हाय कयामत करती है’ ठीक इसी प्रकार का प्रेम दशरथ माझी का भी था जो पहाड़ के लिए क़यामत बन गया और उसके कानों में एक ही बात गूंजती रही कि ‘जबतक तोड़ेगा नहीं, तबतक छोड़ेगा नहीं’। हिन्दी सिनेमा के इतिहास में किसी दलित या आदिवासी के जीवन पर बनी संभवतः यह दूसरी फिल्म है। इसके पहले डॉ भीमराव अम्बेडकर के जीवन पर बनी एक मात्र दलित बायोपिक फिल्म देखने को मिलती है। जबकि अनेको ऐसे नाम हैं जिनपर अच्छी फिल्म बनाई जा सकती थी लेकिन सिनेमा ‘समाज’ से ज्यादा ‘अर्थ’ पर केन्द्रित होकर रह गया। खैर! ‘परिवर्तन संसार का नियम है’ और यह भी कहा जाता है कि ‘जागो तभी सबेरा’, इस प्रकार निसंदेह कहा जा सकता है कि फिल्म ‘माझी- द माउन्टेनमैन’ एक शुरुआत है जो सदियों से सताये दलित और आदिवासियों के लिए उनके द्वारा किये जा रहे लम्बे संघर्ष में उत्साहवर्धक साबित होगी।
सौ वर्ष के लम्बे सिनेमा के इतिहास में लगभग सभी विषयों पर फ़िल्में बनाई जा चुकी हैं। यहाँ तक कि किसी भी देश की तुलना में एक वर्ष में सबसे अधिक सिनेमा बनाने का रिकार्ड भी भारत के नाम है। किन्तु इतने लम्बे वर्षों के अन्तराल में दलित और आदिवासी सिनेमा हाशिये पर ही रहा है। जबकि भारतीय समाज में ‘जाति’ एक कड़वी सच्चाई है। और यही सच्चाई सिनेमाई इतिहास से लगभग गायब है। दलित और आदिवासी विषयक सिनेमा पर बात की जाय तो सौ वर्षों के इतिहास में केवल चुनिन्दा फ़िल्में ही आई हैं। और बायोपिक फ़िल्में तो नदारद ही हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि सिनेमा निर्माण के क्षेत्र में दलित और आदिवासियों का न होना। कुछ हैं भी, तो वह अन्यों की तरह पूंजी के चुंगल में हैं। क्योकि ‘सिनेमा एक ऐसी कलात्मक संभावना है जिसके मूल में उसकी व्यवसायिकता निहित है’। अनुपम ओझा इसी बात को बड़े सलीके से कहते है-“मुनाफाखोरों के लिए सिनेमा सिर्फ एक उत्पाद है। जिसपर वस्तु-व्यापार के नियम लागू होते हैं। दूसरी तरफ कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने वालों के लिए सिनेमा एक भाषा है, अभियक्ति की एक कलात्मक शैली है। फिल्म कला है, परन्तु उद्योग भी है । फिल्म की समस्त कलात्मक सम्भावनाओं के मूल में प्रमुख रूप से उसकी व्यवसायिकता ही रही है”।[1]
इस फिल्म का निर्देशन केतन मेहता ने किया है, जो बायोपिक सिनेमा के लिए जाने जाते हैं। ‘दशरथ माझी’ के अलावा ये  ‘बल्लभभाई पटेल’, ‘मंगल पांडे’ और ‘राजा रवि वर्मा’ पर बायोपिक फिल्म बना चुके हैं। ‘माझी द माउन्टेनमैन’ में मुख्य कलाकार के रूप में नवाजुद्दीन सिद्दकी और राधिका आप्टे हैं जो क्रमशः दशरथ माझी और फगुनिया की भूमिका में हैं। फगुनिया दशरथ माझी की पत्नी का नाम है। इन दोनों कलाकारों ने इस फिल्म में अपने चरित्र को न सिर्फ जीवंत किया है बल्कि जिया भी है। फिल्म का मुख्य कथानक माझी का प्रेम, प्रण और पहाड़ है, और साथ ही साथ दलितों के शोषण, अत्याचार और संघर्ष की उपकथा भी है। जिसको बहुत ही गहन अध्ययन के बाद सलीके से पिरोया गया है। वस्तुतः शानदार, जबरदस्त और जिंदाबाद है।
फिल्म का कथानक इस प्रकार है- बिहार के गया जिले का क़स्बा है वजीरगंज जो एक पहाड़ी के पास बसा है और उसी पहाड़ी के पार है गहलौर गाँव, जहाँ दशरथ माझी का जन्म हुआ था।  गेहलौर गांव की तरक्की में सबसे बड़ी रूकावट यही पहाड़ है। यहाँ के लोगों को अपनी किसी भी बुनियादी सुविधा के लिए वजीरगंज जाना पड़ता है। क्योंकि वजीरगंज में ही स्कूल, अस्पताल, बाजार और रेलवे स्टेशन है। गहलौर गाँव से वजीरगंज सीधे-सीधे तो बहुत नजदीक है लेकिन पहाड़ को घूमकर जाने में यहाँ के लोगों को लगभग चालीस मील की दूरी तय करनी पड़ती है। इसमें समय बरबाद होता है और इसी पहाड़ के कारण आजादी के सालों बाद भी सुविधाएं गेहलौर गाँव तक नहीं पहुँच पाई हैं।
दशरथ मांझी का बाल विवाह फगुनिया के साथ होता है। दशरथ के पिता जमीदार के यहाँ बंधुआ मजदुर हैं। कर्ज न चुका पाने के कारण जमीदार दशरथ को बंधुआ मजदूर बनाने के लिए कहता है। लेकिन साहसी दशरथ उनके चुंगल से बचकर भाग खड़ा होता है। और धनबाद के कोयला खादान में जाकर काम करता है।सात साल बाद जब वह गाँव वापस आता है तब भी उसका गाँव वैसा का वैसा ही है। रास्ते में समाचार पत्र और अन्य गाँव के लोगों से पता चलता की सरकार ने छुआछूत ख़तम कर दिया है। इसलिए गाँव आते ही बिना कुछ सोचे समझे जमीदार का पैर और उसके लडके को गले लगता है। पर ज्योंही जमीदार को पता चलता है कि यह मुसहर दशरथ है उसकी खूब धुनाई होती है। घर जाकर अपने पिता और मित्रों से मिलता है। माँ के मरने के बाद घर में घर में स्त्री की जरुरत होती है। वह पत्नी को विदा कराने के लिए पिता के साथ उसके घर जाता है। लेकिन फगुनिया का पिता विदा करने से माना कर देता है। अंततः उसे फगुनिया को भागकर घर लाना पड़ता है। दशरथ अपनी पत्नी से इतना प्यार करता है कि वह उसके लिए कुछ भी कर सकता है।
एक दिन दशरथ मांझी की पत्नी फगुनिया उसके लिए खाना लेकर पहाड़ चढ़कर जाती है। जहाँ उसका पैर फिसलता है और वह पहाड़ से गिर जाती है। उसे इलाज के लिए वजीरगंज ले जाया जाता है। लेकिन अस्पताल समय से न पहुँच पाने कारण उसकी मृत्यु हो जाती है। दशरथ, पत्नी के मौत का कारण उस पहाड़ को मानता है। वह विशाल पहाड़ के सामने खड़ा होकर बोलता है 'बहुत बड़ा है तु, बहुत अकड़ है तोरा में, अरे भरम है, भरम' और वह हथौड़ा लेकर अकेला ही सुबह से लेकर रात तक पहाड़ में से रास्ता बनाने में जुट जाता है। उसका यह जुनून कभी खत्म नहीं होता। वह कभी नहीं सोचता कि यह काम उसके बस की बात नहीं है। लोग उसे पागल समझते हैं, बच्चे पत्थर मारते हैं, उसके पिता नाराज होते हैं, लेकिन दशरथ इन बातों से बेखबर जुटा रहता है अपने मिशन में। 22 साल लग जाते हैं उसे पहाड़ में से रास्ता बनाने में। इस अन्तराल में उसे तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।  अंततः वह पहाड़ को बौना साबित कर उस पर विजय हासिल कर लेता है।
फिल्म की स्क्रिप्ट केतन मेहता और महेंद्र झाकर ने मिल कर लिखी है। फिल्म में तीन ट्रैक समानांतर चलते हैं। एक तो दशरथ की पहाड़ तोड़ने की प्रेरणास्पद कहानी, जो बताती है कि भगवान भरोसे मत बैठो, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो। दूसरा ट्रैक दशरथ और उसकी पत्नी फगुनिया के प्रेम का अन्तरंग दृश्य। जो केतन मेहता की व्यवसायिक दृष्टि का नतीजा है। तीसरा ट्रैक उस दौर में चल रही राजनीतिक उथल-पुथल को दर्शाता है। मसलन छुआछुत को सरकार खत्म करती है। जमींदार के अत्याचार से मजबूर होकर कुछ मुसहर नक्सली बन जाते हैं। आपातकाल लगता है। पहाड़ से रास्ता निकालने के लिए दशरथ के नाम पर सरकार से जो पैसा मिलता है उसे जमीदार और सरकारी अफसर मिलकर डकार जाते हैं। दशरथ इसकी शिकायत करने के लिए 1300 किलोमीटर दूर पैदल चल कर दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पास जाता है, लेकिन पुलिस उसे भगा देती है। वन विभाग वाले पहाड़ को अपनी संपदा बता कर दशरथ को जेल में डाल देते हैं। ये राजनीतिक हलचल बताती है कि तब भी आम आदमी की नहीं सुनी जाती थी और हालात अब भी सुधरे नहीं हैं। भ्रष्टाचार और गरीबी सिर्फ नारों तक ही सीमित है।
            दशरथ की कहानी में इतनी पकड़ है कि आप पूरी फिल्म आसानी से देख लेते हैं और दशरथ की हिम्मत, मेहनत और जुनून की दाद देते हैं। अखरता है कहानी को कहने का तरीका। निर्देशक केतन मेहता ने कहानी को आगे-पीछे ले जाकर प्रस्तुतिकरण को रोचक बनाना चाहा, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। ये कट्स चुभते हैं। साथ ही दशरथ की प्रेम कहानी के कुछ दृश्य गैर-जरूरी लगते हैं। केतन मेहता प्रतिभाशाली निर्देशक हैं, लेकिन 'मांझी द माउंटन मैन' में उनका काम उनके बनाए गए ऊंचे स्तर से थोड़ा नीचे रहा है, बावजूद इसके उन्होंने बेहतरीन फिल्म बनाई है। अभिनय के क्षेत्र में यह फिल्म बहुत आगे है। एक से बढ़कर एक कलाकार हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी अब हर रोल को यादगार बनाने लगे हैं। चाहे वो बदलापुर का विलेन हो या बजरंगी भाईजान का पत्रकार। मांझी के किरदार में तो वे घुस ही गए हैं। चूंकि नवाजुद्दीन खुद एक छोटे गांव से हैं, इसलिए उन्होंने एक ग्रामीण किरदार की बारीकियां खूब पकड़ी हैं। एक सूखे कुएं वाले दृश्य में और पहाड़ के अन्दर पानी मिलने पर पानी पीना और झाड़ की पत्तियां चबाने के समय उन्होंने कमाल का अभिनय किया है। मांझी के रूप में उनका अभिनय लंबे समय तक याद किया जाएगा।

Thursday, 17 December 2015

निर्भया नही गर्व से ज्योति कहो! दिल्ली ,16 दिसम्बर 2012

आज 16 दिसंबर की रात है, सच कहूँ तो लिखनें में भी हाथ कांप रहा है।क्योंकि आज की मनहूस रात को ही अपनी जिंदगी और आबरू की रक्षा के लिए निर्भय हो कर लड़ी थी और इस मानवता के क्रूर लड़ाई में अपनी जीवन ज्योति को बुझा गई।निर्भया ने जिस साहस के साथ जिदंगी की जंग लड़ी और हमेशा के लिए इस समाज और देश को सोने से पहले सबको जगा कर चली गई। इस घटना के बाद जब देश जगा तो पूरा सुरक्षा तंत्र भी बदलनी पड़ी।
पूरा देश उसे निर्भया बेटी कह कर पुकारता है ।।
न नाम, न पता , न जात-पात, न धर्म, सब के सब इस घटना के बाद छोटा दिखनें लगें।सबनें एक साथ होकर इस सामजिक लड़ाई में आवाज़ उठाई।
तीन साल के बाद असली नाम पता चला है ।
निर्भया की मां बोलीं- मेरी बेटी का नाम ज्योति था, मुझे यह बताने में कोई शर्मिंदगी नहीं.....
इतना सब कुछ होने के बाद स्थिति नही बदली है।
समाचार पत्र में हर रोज पढ़ने के लिए मिलता है । फिर से किसी महिला का चीर हरण हुआ है...मैं पूछता हूँ कब तक द्रौपदी का चीर हरण होते रहेगा ? कोई तो इसकी समय सीमा होगी? कभी तो इसका अंत होगा.... कभी तो मन भर जानें के बाद छोड़ देगा, कभी तो थक जाने पर कम से कम जिन्दा तो छोड़ देगा,.... अगर नही, तो हम चुप चाप अपनें घर के दरबाजे को बंद कर के अपनी माँ, बहन, पत्नी, बेटी, भाई, को कहना पड़ेगा तुम सब सुरक्षित हो , टीवी के न्यूज़ पर देखें आज किसके साथ दुर्घटना हुआ है या समय रहते आवाज़ उठाएँ .....और कहें

बहुत हो गया है तिरस्कार तुम्हारा
अबकी बार चीर हरण दुःशासन का होगा
दुःशासन तब पुकारेगा...हाय दुर्योधन...हाय दुर्योधन....
अब मुझे बचाओ..मेरा चीर बढ़ा कर मेरी लाज़ बचा...
अपना सच में तू पुरुषार्थ दिखा दुर्योधन...
हाय दुर्योदधन...हाय दुर्योधन..मेरी लाज़ बचा....
कृष्ण बगल में खड़ा होकर मुस्कुरायेगा....
द्रौपदी उसे रणभूमि चलनें के लिए ललकारी गी....
युधिष्ठिर अपने किये पर पचतायेगा( जुआ खेल कर द्रौपदी को हारनें पर)
अर्जुन अबकी बार गीता का पाठ न पढ़ कर, पहले से ही कुरुक्षेत्र में जाकर हुंकारेगा.....
भीम प्रतिज्ञा छोड़ अपनी गदा घुमायेगा...
भीष्मपितामह के आँखों में सच में आँसू आयेगा (ख़ुशी के)
यह सब होता सुनकर, धृतराष्ट्र अपनी अंधी आँखो से भी देख पायेगा....
तब सच में कहेगा, द्रौपदी चीर हरण सच में भयावा था....
हे! आधुनिक मानव अब तो तुम इसे बंद करो।

Sunday, 13 December 2015

परमात्मा प्राप्ति किसे होती है ?

एक राजा था।वह बहुत न्याय प्रिय तथा प्रजा वत्सल एवं धार्मिक स्वभाव का था।
वह नित्य अपने इष्ट देव की बडी श्रद्धा से पूजा-पाठ और याद करता था।
एक दिन इष्ट देव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा कहा---"राजन् मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। बोलो तुम्हारी कोई इछा हॆ?"
प्रजा को चाहने वाला राजा बोला---"भगवन् मेरे पास आपका दिया सब कुछ हॆ।आपकी कृपा से राज्य मे सब प्रकार सुख-शान्ति हॆ। फिर भी मेरी एक ईच्छा हॆ कि जैसे आपने मुझे दर्शन देकर धन्य किया, वैसे ही मेरी सारी प्रजा को भी दर्शन दीजिये।"
"यह तो सम्भव नहीं है ।" ---भगवान ने राजा को समझाया ।परन्तु प्रजा को चाहने वाला राजा भगवान् से जिद्द् करने लगा। आखिर भगवान को अपने साधक के सामने झुकना पडा ओर वे बोले,--"ठीक है, कल अपनी सारी प्रजा को उस पहाडी के पास लाना। मैं पहाडी के ऊपर से दर्शन दूँगा।"
राजा अत्यन्त प्रसन्न. हुअा और भगवान को धन्यवाद दिया।
अगले दिन सारे नगर मे ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सभी पहाड के नीचे मेरे साथ पहुँचे,वहाँ भगवान् आप सबको दर्शन देगें।
दूसरे दिन राजा अपने समस्त प्रजा और स्वजनों को साथ लेकर पहाडी की ओर चलने लगा।
चलते-चलते रास्ते मे एक स्थान पर तांबे कि सिक्कों का पहाड देखा। प्रजा में से कुछ एक उस ओर भागने लगे।तभी ज्ञानी राजा ने सबको सर्तक किया कि कोई उस ओर ध्यान न दे,क्योकि तुम सब भगवान से मिलने जा रहे हो,इन तांबे के सिक्कों के पीछे अपने भाग्य को लात मत मारो।
परन्तु लोभ-लालच मे वशीभूत कुछ एक प्रजा तांबे कि सिक्कों वाली पहाडी की ओर भाग गयी और सिक्कों कि गठरी बनाकर अपने घर कि ओर चलने लगे। वे मन ही मन सोच रहे थे,पहले ये सिक्कों को समेट ले, भगवान से तो फिर कभी मिल लेगे।
राजा खिन्न मन से आगे बढे। कुछ दूर चलने पर चांदी कि सिक्कों का चमचमाता पहाड दिखाई दिया।इस वार भी बचे हुये प्रजा में से कुछ लोग, उस ओर भागने लगे ओर चांदी के सिक्कों को गठरी बनाकर अपनी घर की ओर चलने लगे।उनके मन मे विचार चल रहा था कि,ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता है । चांदी के इतने सारे सिक्के फिर मिले न मिले, भगवान तो फिर कभी मिल जायेगें
इसी प्रकार कुछ दूर और चलने पर सोने के सिक्कों का पहाड नजर आया।अब तो प्रजाजनो में बचे हुये सारे लोग तथा राजा के स्वजन भी उस ओर भागने लगे। वे भी दूसरों की तरह सिक्कों कि गठरी लाद कर अपने-अपने घरों की ओर चल दिये।
अब केवल राजा ओर रानी ही शेष रह गये थे।राजा रानी से कहने लगे---"देखो कितने लोभी ये लोग। भगवान से मिलने का महत्व ही नहीं जानते हॆ। भगवान के सामने सारी दुनियां कि दौलत क्या चीज हॆ?" सही बात है--रानी ने राजा कि बात का समर्थन किया और वह आगे बढने लगे।
कुछ दुर चलने पर राजा ओर रानी ने देखा कि सप्तरंगि आभा बिखरता हीरों का पहाड हॆ।अब तो रानी से रहा नहीं गया,हीरों के आर्कषण से वह भी दौड पडी,और हीरों कि गठरी बनाने लगी ।फिर भी उसका मन नहीं भरा तो साड़ी के पल्लू मेँ भी बांधने लगी । वजन के कारण रानी के वस्त्र देह से अलग हो गये,परंतु हीरों का तृष्णा अभी भी नहीं मिटी।यह देख राजा को अत्यन्त ग्लानि ओर विरक्ति हुई।बड़े दुःखद मन से राजा अकेले ही आगे बढते गये।
वहाँ सचमुच भगवान खडे उसका इन्तजार कर रहे थे।राजा को देखते ही भगवान मुसकुराये ओर पुछा --"कहाँ है तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे प्रियजन। मैं तो कब से उनसे मिलने के लिये बेकरारी से उनका इन्तजार कर रहा हूॅ।"
राजा ने शर्म और आत्म-ग्लानि से अपना सर झुका दिया।तब भगवान ने राजा को समझाया--
"राजन जो लोग भौतिक सांसारिक प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हॆ, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती ओर वह मेरे स्नेह तथा आर्शिवाद से भी वंचित रह जाते हॆ।"
सार......
जो आत्मायें अपनी मन ओर बुद्धि से भगवान पर कुर्बान जाते हैं,
और सर्वसम्बधों से प्यार करते है...........वह भगवान के प्रिय बनते हैं।

Friday, 11 December 2015

विद्रोही जी पर "मन की बात"

नीले आकाश के नीचे भूरे ज़मीन पर दिल्ली के JNU प्रांगण में अक्सर अकेले में उदास गिरगिट से बात करते थे विद्रोही जी !
हर कोई JNU में विद्रोही बनना चाहता है । शायद विद्रोही जी अपना पूरा जीवन काल दूसरों की हक की लड़ाई में, उसकी उचित माँग, देश में हर घटना पर अपनी निष्पक्ष दृष्टिकोण, और उनकी कविता जो हमेशा ओज रस से भरा , कटाक्षपूर्ण रहता था।
विद्रोही जी अब इस दुनियां में नही रहें फिर भी उनकी आवाज़ मेरी कानों में गूँजती है ....
उनका सोचनें का स्तर, किसी भी विषय वस्तु की संवेदनशीलता, उनका भावनात्मक लगाव अंजानेपन से भी ....और भी बातें हैं...
1.किसी भी व्यक्ति के मन में क्या चल रहा यह कोई नही बता सकता है...
2.कोई क्या सोच कर बोल रहा है सामनें वाला कभी भी नही बता सकता है...
विद्रोही जी अपनी हर बात में इन्हीं दोनों बातों को कहा है....
वे अपनी लय और ताल में कहते थे ।
★मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले!
आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता हैतो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों
में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.
:―विद्रोही जी
★‘’इतिहास में वो पहली औरत कौन थी- जिसे सबसे पहले जलाया गया ?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो- मेरी मां रही होगी
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा ?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी- मेरी बेटी होगी
और मैं यह होने नहीं दूंगा .‘’
______ विद्रोही जी _______

Saturday, 5 December 2015

असहिष्णुता पर मन की बात

असहिष्णुता बोलनें में मुझे दिक्क़त होती है मतलब उच्चारण में त्रुटि हो जाती है...
जिस व्यक्ति को बोलने आता है वह बोल बोल कर असहिष्णुता शब्द फैला रहा है.... और अंत में कहता है देश में असहिष्णुता ज़्यादा बढ़ गई है।
ग़रीब चाहे वह जिस धर्म का हो उसे असहिष्णुता , विषहिष्णुता , सहिष्णुता जैसे शब्द का तो अर्थ भी नही जानता....उसे तो बस दो वक़्त की रोटी, सर पर एक छत और बदन पर एक कपड़ा चाहिए ।
बाँकी सब धर्म, जाति, रंग, ऊँच-नीच , अमीरी......सब उसके लिए शोषण के माध्यम है... और कुछ भी नही!!
कैमरा के सामने भाषण देना आसान होता है चाहे वह आमिर ख़ान हो या अनुपम खेर.... जब भी ग़लत होगा मरता ग़रीब का बेटा ही और इज्ज़त ग़रीब की बेटी की लुटती है ,भाषण देनें वालों का नही....।

अंत में बस इतना कहूँगा....

वो राम का प्रसाद भी खाता है...
वो रहीम की खीर भी पीता है...
जो भूखा है...
उसे मजहब कहाँ समझ आता है..

Tuesday, 17 November 2015

निश्चित सफलता के सूत्र।

★ जीतने के लिए आपमें एक गुण हाेना ही चाहिए। वह है निश्चित उद्देश्य – यह ज्ञान कि आप क्या चाहते हैं – और उसे हासिल करने की तीव्र इच्छा।
– नेपोलियन हिल

★ याेजना बनाने का मतलब भविष्य काे वर्तमान में लाना है, ताकि आप उसके बारे में इसी वक़्त कुछ कर सकें।
– एलन लकीन

★ हमारे पास हमेशा पर्याप्त समय रहता है, बशर्ते हम उसका सही इस्तेमाल करें।
– जाेहानन वाँल्फ़गैंग वाँन गेटे

★ हर महान व्यक्ति उसी अनुपात में महान बना है और हर सफल व्यक्ति उसी अनुपात में सफल हुआ है, जिस अनुपात में उसने अपनी शक्तियाँ एक ख़ास क्षेत्र में सीमित की हैं।
– आँरिसन स्वेट मार्डन

★ हर दिन बड़े काम पुरे करने का समय निकालें। वे हर दिन के कामाें की याेजना पहले से बनाएँ। सिर्फ़ वे छाेटे काम ही पहले करें, जिन्हें सुबह तत्काल निबटाना ज़रूरी हाे। फिर सीधे बड़े कामाें की ओर बढ़ें और उन्हें पूरा करने में जुट जाएँ।
– बोर्डरूम रिपोटर्स

★ सफलता का पहला नियम है एकाग्रता – सारी ऊर्जा काे एक बिंदु पर केंद्रित करना और दाएं-बाएं देखे बिना उस बिंदु तक जाना।
– विलियम मैथ्यूज़

★ जब हर शारीरिक और मानसिक संसाधन केंद्रित हाे जाता है, ताे समस्या सुलझाने की मानवीय शक्ति कई गुना बढ़ जाती है।
– नॉर्मन विंसेंट पील

★ आप जाे कर सकते हैं करें, जाे उपलब्ध है उसी से करें, जहाँ भी आप हैं वहीं से करें, बस कर डालें।
– थियाेडाेर रूज़वेल्ट

★ आपकी योग्यता का स्तर चाहे जाे हाे, आपमें इतनी ज्यादा संभावनाएँ हैं कि आप एक जीवन में उन तक नहीं पहुँच सकते।
– जेम्स टी. मैके

★ जिन लाेगाें में तुलनात्मक रूप से कम शक्तियाँ हाेती हैं, वे भी बहुँत कुछ हासिल कर सकते हैं, बशर्ते वे पुरी तरह जुट जाएँ और बिना थके एक वक़्त में एक ही चीज़ करते रहें।
– सैम्युअल स्माइल्स

★ आपका काम चाहे जाे भी हाे, उसमें सफलता का इकलाैता अचूक तरीक़ा अपेक्षा से ज्यादा और बेहतर सेवा देना है।
– आँग मैन्डिनाे

★ अपना काम करें; लकिन सिर्फ अपना काम ही नहीं, बल्कि ठाठ-बाट पाने के लिए कुछ ज्यादा भी करें – यह थाेड़ा ज्यादा भी बाक़ी जितना ही महत्त्वपूर्ण है।
– डीन ब्रिग्स

★ अपने सारे विचार उस काम पर केंद्रित कर लें, जाे फिलहाल आपके हाथ में हाे। सूरज की किरणें तब तक कुछ नहीं जला पातीं, जब तक कि उन्हें केंद्रित न किया जाए।
– अलेक्ज़ेडर ग्राहम बेल

★ सफलता की पहली शर्त है, बिना थके अपनी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा काे किसी एक समस्या पर लगाने की योग्यता।
– थॉमस एडिसन

★ अपने सारे संसाधन जुटा लें, सभी इंद्रिया चाैकस कर लें, तमाम ऊर्जा समेट लें, सारी क्षमताएँ किसी एक क्षेत्र में माहिर बनने पर केंद्रित कर लें।
– जॉन हैग्गई

★ जबर्दस्त राेमांच, विजय और रचनात्मक कर्म के राेचक उत्साह में ही इंसान काे चरम सुख मिलता है।
– एंटाइन डे सेंट एक्ज़ुपरी

★ ज़िंदगी की रफ्तार बढ़ाने के अलावा भी इसमें बहुँत कुछ है।
– गांधी

★ शुरूआत में आदत एक अदृश्य धागे जैसी हाेती है, लेकिन जब भी हम उस काम काे दाेहराते हैं, ताे हम उसमें एक और रेशा जाेड़कर धागे काे मज़बूत कर लेते हैं और यह सिलसिला तब तक चलता रहता है, जब तक कि आदत माेटी रस्सी बनकर हमें कसकर बाँध नहीं लेती – हमारे विचाराें और कामाें काे।
– ओरिसन स्वेट मार्डन

★ सीमित लक्ष्याें पर अपनी सारी ऊर्जा केंद्रित करने से आपके जीवन में जितनी शक्ति आती है, उतनी किसी दूसरी चीज़ से नहीं आती।
– नीडाे क्यूबीन

★ इंतज़ार न करें। समय कभी “बिलकुल सही” नहीं हाेगा। वहीं से शुरु कर दें, जहाँ आप खड़े हैं। उन्हीं साधनाें से काम करें, जाे आपके पास माैजूद हैं। रास्ते में आपकाे बेहतर साधन अपने आप ही मिल जाएँगे।
– नेपाेलियन हिल

★ यही सच्ची शक्ति का रहस्य है। सतत अभ्यास से सीखें कि किसी पल में अपने संसाधनाें काे किसी निश्चित बिंदु पर किस तरह एकत्रित और एकाग्र किया जाता है।
– जेम्स एलन

Sunday, 8 November 2015

स्त्री

तस्वीर मत बनो,जो सजा ले कोई भी तुम्हे अपने ड्राइंग रूम में।
नर्तकी मत बनो, कि कोई भी नचा ले तुम्हे अपने दरबार जैसे समारोह में।
मत करो ऐसा अभिनय, जो बना दे तुम्हे वैशाली की नगर वधु।
मत बनाओ ऐसी भंगिमाएं, जिन से विद्ध हो जाये
कोई पौरुष और समेट ले तुम्हे अपने अंक में।
क्यों बनती हो उर्वशी और मेनका दूसरों के इशारों पर नाचने के लिए।
नही, नही मैं तुम्हारी प्रगति का प्रतिरोधी नही हूँ।
तुम उड़ाओ यान, करो वैज्ञानिक अनुसंधान बटाओ अपने सहचर का हाथ निभाओ अपनी भागीदारी समानता के लिए ,और सम्मलित हो जाओ वरदायिनी बन कर किसी की वेदना में।
उठाओ शस्त्र ,बनो दुर्गा,दुनिया को मंदिर बनाने के लिए
क्योंकि तुम शक्ति हो,मातृ शक्ति , विभव शक्ति और संहार शक्ति का सम्मलित रूप - हे स्त्री !

कितना भयंकर आश्चर्य है ?

अब यकीन हो गया,
लड़कियां, इतनी सरल हृदय होती है की,
छोटी- छोटी बातों पर भी खिलखिला कर
हॅंसने लगती लगती है,
और लोग ख़ामख़ाह ही,
उनकी हँसी का कोई ख़ास अर्थ निकलने में लग जाते है,
लड़कियां तो कहीं एक छोटे बच्चे
को रोता हुआ देख कर भी,
हुलस कर हँसने हुए कहती है,
"अरे देख रोता हुआ कितना प्यारा लग रहा है"
तो कभी चलायमान सीड़ियों पर,
ज़ो नीचे से उपर जाती है,
उपर से एक- दो कदम पैर रख कर,
ठहाका लगा कर हँस पड़ती है,
मेरी डेढ़ साल की बेटी,
जैसे ही देखती है की, कोई उसका फोटो खींच रहा है,
खट से अपनी बतीसी चमका देती है,
सच, कितना आसान है,
लड़कियों को हँसाना,
और कितना भयंकर आश्चर्य है की,
इतना आसान होते हुए भी,
असंख्यों लड़कियों कि हँसी,
ना जाने कहाँ गायब हो गई है।