Tuesday, 25 July 2017

मेरी रश्के-कमर , तूने पहली नजर, जब नजर से मिलायी मज़ा आ गया 

मेरी रश्के-कमर , तूने पहली नजर, जब नजर से मिलायी मज़ा आ गया 
बर्क़ सी गिर गयी , काम ही कर गयी, आग ऐसी लगायी मज़ा आ गया ||

रश्क-ए-क़मर (रस्के-कमर) = इतने खूबसूरत की चाँद भी जलता हो जिसकी खूबसूरती से

बर्क़ = बिजली गिरना 

जाम में घोलकर हुस्न कि मस्तियाँ, चांदनी मुस्कुरायी मज़ा आ गया | 
चाँद के साये में ऐ मेरे साक़िया, तूने ऐसी पिलायी मज़ा आ गया ||

नशा शीशे में अगड़ाई लेने लगा, बज्मे-रिंदा में सागर खनकने लगा |
मैकदे पे बरसने लगी मस्तिया, जब घटा गिर के छायी मज़ा आ गया ||

बे-हिज़ाबाना  वो सामने आ गए, और जवानी जवानी से टकरा गयी || 
आँख उनकी लड़ी यूँ मेरी आँख से , देखकर ये लड़ाई मज़ा आ गया 

बे-हिज़ाबाना = बिना नक़ाब या परदे के 

आँख में थी हया हर मुलाकात पर , सुर्ख आरिज़ हुए वस्ल की बात पर |
उसने शरमा के मेरे सवालात पे, ऐसे गर्दन झुकाई मज़ा आ गया ||

आरिज़ = कपोल, वस्ल = मिलने 

शैख़ साहिब का ईमान बिक ही गया, देखकर हुस्न-ऐ-साक़ी पिघल ही गया |
आज से पहले ये कितने मगरूर थे, लूट गयी पारसाई मज़ा आ गया ||

पारसाई = पवित्रता, छूकर किसी को सोना बना देने का वरदान ||

ऐ “फ़ना” शुक्र है आज वादे फ़ना, उस ने रख ली मेरे प्यार की आबरू |
अपने हाथों से उसने मेरी कब्र पर, चादर-ऐ-गुल ल चढ़ाई मज़ा आ गया ||

चादर-ऐ-गुल = फूलों की चादर या गुलदस्ता

No comments: