गायक: Lata Mangeshkar, Shabbir Kumar
संगीतकार: लक्समिकान्त प्यारेलाल
लोग कहते हैं कि तुम्हारा अंदाज़ बदला बदला सा हो गया है पर कितने ज़ख्म खाए हैं इस दिल पर तब ये अंदाज़ आया है..! A6
जो प्रेम गली में आया ही नहीं
प्रीतम का ठिकाना क्या जाने…
जिसने कभी प्रीत लगाई नहीं
वो प्रीत निभाना क्या जाने…..
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया…
वो काम भला क्या काम हुआ
जिस काम का बोझा सर पे हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिस इश्क़ का चर्चा घर पे हो…
वो काम भला क्या काम हुआ
जो मटर सरीखा हल्का हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ना दूर तहलका हो…
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना जान रगड़ती हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ना बात बिगड़ती हो…
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें साला दिल रो जाए
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो आसानी से हो जाए…
वो काम भला क्या काम हुआ
जो मज़ा नहीं दे व्हिस्की का
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ना मौक़ा सिसकी का…
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसकी ना शक्ल इबादत हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसकी दरकार इजाज़त हो…
वो काम भला क्या काम हुआ
जो कहे ‘घूम और ठग ले बे’
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो कहे ‘चूम और भग ले बे’…
वो काम भला क्या काम हुआ
कि मज़दूरी का धोखा हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो मजबूरी का मौक़ा हो…
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना ठसक सिकंदर की
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ना ठरक हो अंदर की…
वो काम भला क्या काम हुआ
जो कड़वी घूंट सरीखा हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें सब कुछ ही मीठा हो…
वो काम भला क्या काम हुआ
जो लब की मुस्कां खोता हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो सबकी सुन के होता हो…
वो काम भला क्या काम हुआ
जो ‘वातानुकूलित’ हो बस
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो ‘हांफ के कर दे चित’ बस…
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना ढेर पसीना हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो ना भीगा ना झीना हो…
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना लहू महकता हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो इक चुम्बन में थकता हो…
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें अमरीका बाप बने
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो वियतनाम का शाप बने…
वो काम भला क्या काम हुआ
जो बिन लादेन को भा जाए
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो चबा…’मुशर्रफ’ खा जाए…
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें संसद की रंगरलियां
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो रंगे गोधरा की गलियां…
2
अरे, जाना कहां है…?
उस घर से हमको चिढ़ थी जिस घर
हरदम हमें आराम मिला…
उस राह से हमको घिन थी जिस पर
हरदम हमें सलाम मिला…
उस भरे मदरसे से थक बैठे
हरदम जहां इनाम मिला…
उस दुकां पे जाना भूल गए
जिस पे सामां बिन दाम मिला…
हम नहीं हाथ को मिला सके
जब मुस्काता शैतान मिला…
और खुलेआम यूं झूम उठे
जब पहला वो इन्सान मिला…
फिर आज तलक ना समझ सके
कि क्योंकर आखिर उसी रोज़
वो शहर छोड़ के जाने का
हम को रूखा ऐलान मिला…
लेखक :-पीयूष मिश्रा
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल[1] में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां [2]
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम [3]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर[4] भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
लेखक:- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शब्दार्थ
ऊपर जायें↑ 1 सनातन पन्ना
ऊपर जायें↑ 2 घने पहाड़
ऊपर जायें↑ 3 पवित्रता या ईश्वर से वियोग
ऊपर जायें↑ 4 देखने वाला
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
वो लोग बहुत ख़ुश-क़िस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते-जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आ कर हम ने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
लेखक :- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
आने वाले हैं शिकारी मेरे गाँव में,
जनता है चिंता की मारी मेरे गाँव में।
आने वाले हे शिकारी मेरे गाँव में,
जनता हे चिंता की मारी मेरे गाँव में।
फिर वही चोराहे होंगे
प्यासी आखों उठाए होंगे
सपनो भोगी रातें होंगी
मीठी-मीठी बातें होंगी
मालाएं पहनानी होंगी
फिर ताली बजवानी होंगी
दिन को रात कहा जायेगा
दो को सात कहा जायेगा
आने वाले हें- आने वाले हें मदारी मेरे गाँव में
जनता हे चिंता की मारी मेरे गाँव में।
शब्दों-शब्दों आहें होंगी
लेकिन नकली बाहें होंगी
तुम कहते हो नेता होंगे
लेकिन वे अभिनेता होंगे
बाहर-बाहर सज्जन होंगे
भीतर-भीतर रहजन होंगे
सब कुछ हे,फिर भी मांगेगे
झुकने की सीमा लाघेगें
आने वाले हें भिखारी मेरे गाँव में
जनता हे चिंता की मारी मेरे गाँव में।
उनकी चिंता जग से न्यारी
कुर्सी हे दुनिया से प्यारी
कुर्सी हे तो भी खल्कामी
बिन कुर्सी के भी दुस्कामी
कुर्सी रास्ता कुर्सी मंदिर
कुर्सी नदियां कुर्सी शाहिल
कुर्सी पर ईमान लुटायें
सब कुछ अपना दावं लगायें
आने वाले हैं- आने वाले हैं जुआरी मेरे गाँव में
जनता हे चिंता की मारी मेरे गाँव में।
#वरिष्ठ_गीतकार_श्री_राजेंद्र_राजन_जी_की_प्रस्तुति ।
चित्रपट / Film: Gulaami 1985
गीतकार / Lyricist: गुलजार-(Gulzar)
गायक / Singer(s): लता मंगेशकर-Lata Mangeshkar - Shabbir Kumar
जिहाल-ए-मस्ती मकुन-ब-रन्जिश,
बहाल-ए-हिज्र बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन
तुम्हारा दिल या हमारा दिल है
वो आके पहलू में ऐसे बैठे
के शाम रंगीन हो गई है (३)
ज़रा ज़रा सी खिली तबीयत
ज़रा सी ग़मगीन हो गई है
(कभी कभी शाम ऐसे ढलती है
के जैसे घूँघट उतर रहा है ) - २
तुम्हारे सीने से उठ था धुआँ
हमारे दिल से गुज़ार रहा है
ये शर्म है या हया है क्या है
नजर उठाते ही झुक गयी है
तुम्हारी पलकों से गिरके शबनम
हमारी आँखों में रुक गयी है
खुसरो का वह गीत जिससे गुलज़ार को प्रेरणा मिली थी।
अमीर खुसरो ने एक गीत (तकनीकी तौर पर इसे क्या कहेंगे मैं नहीं बता सकता) लिखा जिसकी खासियत यह थी कि इसकी पहली पंक्ति फ़ारसी में थी जबकि दूसरी पंक्ति ब्रज भाषा में। फ़िल्म के गीत की तर्ज पर ही खुसरो के इस गीत को भी पढ़ें। गजब के शब्द.. कमाल की शब्दों की जादूगरी।
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, (फ़ारसी)
दुराये नैना बनाये बतियां | (ब्रज)
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान, (फ़ारसी)
न लेहो काहे लगाये छतियां || (ब्रज)
शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह, (फ़ारसी)
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां || (ब्रज)
यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं, (फ़ारसी)
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां || (ब्रज)
चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह | (फ़ारसी)
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां || (ब्रज)
बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ | (फ़ारसी)
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां || (ब्रज)
चाहें अमीर खुसरो हों जिनके सूफ़ी गीत आज भी उनके चाहने वालों की पहली पसंद हैं और चाहें गुलज़ार जो पिछले पाँच से छह दशकों से एक के बाद एक नायाब गीत हमें दे रहे हैं.. दोनों का ही अपने क्षेत्र में कोई मुकाबला नहीं।
मेरी रश्के-कमर , तूने पहली नजर, जब नजर से मिलायी मज़ा आ गया
बर्क़ सी गिर गयी , काम ही कर गयी, आग ऐसी लगायी मज़ा आ गया ||
रश्क-ए-क़मर (रस्के-कमर) = इतने खूबसूरत की चाँद भी जलता हो जिसकी खूबसूरती से
बर्क़ = बिजली गिरना
जाम में घोलकर हुस्न कि मस्तियाँ, चांदनी मुस्कुरायी मज़ा आ गया |
चाँद के साये में ऐ मेरे साक़िया, तूने ऐसी पिलायी मज़ा आ गया ||
नशा शीशे में अगड़ाई लेने लगा, बज्मे-रिंदा में सागर खनकने लगा |
मैकदे पे बरसने लगी मस्तिया, जब घटा गिर के छायी मज़ा आ गया ||
बे-हिज़ाबाना वो सामने आ गए, और जवानी जवानी से टकरा गयी ||
आँख उनकी लड़ी यूँ मेरी आँख से , देखकर ये लड़ाई मज़ा आ गया
बे-हिज़ाबाना = बिना नक़ाब या परदे के
आँख में थी हया हर मुलाकात पर , सुर्ख आरिज़ हुए वस्ल की बात पर |
उसने शरमा के मेरे सवालात पे, ऐसे गर्दन झुकाई मज़ा आ गया ||
आरिज़ = कपोल, वस्ल = मिलने
शैख़ साहिब का ईमान बिक ही गया, देखकर हुस्न-ऐ-साक़ी पिघल ही गया |
आज से पहले ये कितने मगरूर थे, लूट गयी पारसाई मज़ा आ गया ||
पारसाई = पवित्रता, छूकर किसी को सोना बना देने का वरदान ||
ऐ “फ़ना” शुक्र है आज वादे फ़ना, उस ने रख ली मेरे प्यार की आबरू |
अपने हाथों से उसने मेरी कब्र पर, चादर-ऐ-गुल ल चढ़ाई मज़ा आ गया ||
चादर-ऐ-गुल = फूलों की चादर या गुलदस्ता
हमे और जीने की चाहत ना होती
अगर तुम ना होते, अगर तुम ना होते
तुम्हे देख के तो लगता हैं ऐसे
बहारों का मौसम आया हो जैसे
दिखायी ना देती, अंधेरों में ज्योती
अगर तुम ना होते..
हमे जो तुम्हारा सहारा ना मिलता
भंवर में ही रहते, किनारा ना मिलता
किनारे पे भी तो, लहर आ डूबोती
अगर तुम ना होते..
न जाने क्यो दिल से, ये आवाज़ आयी
मिलन से हैं बढ़ के, तुम्हारी जुदाई
इन आँखों के आँसू ना कहलाते मोती
अगर तुम ना होते..
गीतकार : गुलशन बावरा,
गायक : किशोर कुमार,
संगीतकार : राहुलदेव बर्मन,
चित्रपट : अगर तुम ना होते - 1983
प्यार का पहला खत लिखने में वक़्त तो लगता है
नये परिंदो को उड़ने में वक़्त तो लगता है
जिस्म की बात नही थी उनके दिल तक जाना था
लंबी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है
गाँठ अगर लग जाये तो फिर रिश्ते हो या डोरी
लाख करे कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है
हमने इलाज-ए-जख्म-ए-दिल तो ढूँढ लिया लेकिन
गहरे ज़ख़्मो को भरने में वक़्त तो लगता है
- JAGJIT SINGH