Sunday, 20 December 2015

माझी- द माउन्टेनमैन: शानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद

दुनिया के पहले पहाड़तोड़वा, ‘दशरथ माझी’ के जीवन पर बनीं हिंदी फिल्म ‘माझी द माउन्टेनमैन’ एक ऐसी बायोपिक फिल्म है, जो प्रेम के उद्दात स्वरूप को प्रस्तुत करती है। प्रेम का यही उद्दात स्वरूप शानदार और जबरदस्त है इसलिए जिंदाबाद है। लेकिन इस प्रेम को जितना जिंदाबाद होना चाहिए था उतना नहीं हो पाया। क्योंकि यह एक मूस खाने वाली मुसहर जाति अर्थात दलित जाति का प्रेम था। प्रसंग बस यहाँ एक प्रसिद्द गीत का जिक्र करना लाजमी होगा ‘तवायफ कहाँ किसी से कभी मुहब्बत करती है, मगर जब करती है..तो हाय कयामत करती है’ ठीक इसी प्रकार का प्रेम दशरथ माझी का भी था जो पहाड़ के लिए क़यामत बन गया और उसके कानों में एक ही बात गूंजती रही कि ‘जबतक तोड़ेगा नहीं, तबतक छोड़ेगा नहीं’। हिन्दी सिनेमा के इतिहास में किसी दलित या आदिवासी के जीवन पर बनी संभवतः यह दूसरी फिल्म है। इसके पहले डॉ भीमराव अम्बेडकर के जीवन पर बनी एक मात्र दलित बायोपिक फिल्म देखने को मिलती है। जबकि अनेको ऐसे नाम हैं जिनपर अच्छी फिल्म बनाई जा सकती थी लेकिन सिनेमा ‘समाज’ से ज्यादा ‘अर्थ’ पर केन्द्रित होकर रह गया। खैर! ‘परिवर्तन संसार का नियम है’ और यह भी कहा जाता है कि ‘जागो तभी सबेरा’, इस प्रकार निसंदेह कहा जा सकता है कि फिल्म ‘माझी- द माउन्टेनमैन’ एक शुरुआत है जो सदियों से सताये दलित और आदिवासियों के लिए उनके द्वारा किये जा रहे लम्बे संघर्ष में उत्साहवर्धक साबित होगी।
सौ वर्ष के लम्बे सिनेमा के इतिहास में लगभग सभी विषयों पर फ़िल्में बनाई जा चुकी हैं। यहाँ तक कि किसी भी देश की तुलना में एक वर्ष में सबसे अधिक सिनेमा बनाने का रिकार्ड भी भारत के नाम है। किन्तु इतने लम्बे वर्षों के अन्तराल में दलित और आदिवासी सिनेमा हाशिये पर ही रहा है। जबकि भारतीय समाज में ‘जाति’ एक कड़वी सच्चाई है। और यही सच्चाई सिनेमाई इतिहास से लगभग गायब है। दलित और आदिवासी विषयक सिनेमा पर बात की जाय तो सौ वर्षों के इतिहास में केवल चुनिन्दा फ़िल्में ही आई हैं। और बायोपिक फ़िल्में तो नदारद ही हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि सिनेमा निर्माण के क्षेत्र में दलित और आदिवासियों का न होना। कुछ हैं भी, तो वह अन्यों की तरह पूंजी के चुंगल में हैं। क्योकि ‘सिनेमा एक ऐसी कलात्मक संभावना है जिसके मूल में उसकी व्यवसायिकता निहित है’। अनुपम ओझा इसी बात को बड़े सलीके से कहते है-“मुनाफाखोरों के लिए सिनेमा सिर्फ एक उत्पाद है। जिसपर वस्तु-व्यापार के नियम लागू होते हैं। दूसरी तरफ कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने वालों के लिए सिनेमा एक भाषा है, अभियक्ति की एक कलात्मक शैली है। फिल्म कला है, परन्तु उद्योग भी है । फिल्म की समस्त कलात्मक सम्भावनाओं के मूल में प्रमुख रूप से उसकी व्यवसायिकता ही रही है”।[1]
इस फिल्म का निर्देशन केतन मेहता ने किया है, जो बायोपिक सिनेमा के लिए जाने जाते हैं। ‘दशरथ माझी’ के अलावा ये  ‘बल्लभभाई पटेल’, ‘मंगल पांडे’ और ‘राजा रवि वर्मा’ पर बायोपिक फिल्म बना चुके हैं। ‘माझी द माउन्टेनमैन’ में मुख्य कलाकार के रूप में नवाजुद्दीन सिद्दकी और राधिका आप्टे हैं जो क्रमशः दशरथ माझी और फगुनिया की भूमिका में हैं। फगुनिया दशरथ माझी की पत्नी का नाम है। इन दोनों कलाकारों ने इस फिल्म में अपने चरित्र को न सिर्फ जीवंत किया है बल्कि जिया भी है। फिल्म का मुख्य कथानक माझी का प्रेम, प्रण और पहाड़ है, और साथ ही साथ दलितों के शोषण, अत्याचार और संघर्ष की उपकथा भी है। जिसको बहुत ही गहन अध्ययन के बाद सलीके से पिरोया गया है। वस्तुतः शानदार, जबरदस्त और जिंदाबाद है।
फिल्म का कथानक इस प्रकार है- बिहार के गया जिले का क़स्बा है वजीरगंज जो एक पहाड़ी के पास बसा है और उसी पहाड़ी के पार है गहलौर गाँव, जहाँ दशरथ माझी का जन्म हुआ था।  गेहलौर गांव की तरक्की में सबसे बड़ी रूकावट यही पहाड़ है। यहाँ के लोगों को अपनी किसी भी बुनियादी सुविधा के लिए वजीरगंज जाना पड़ता है। क्योंकि वजीरगंज में ही स्कूल, अस्पताल, बाजार और रेलवे स्टेशन है। गहलौर गाँव से वजीरगंज सीधे-सीधे तो बहुत नजदीक है लेकिन पहाड़ को घूमकर जाने में यहाँ के लोगों को लगभग चालीस मील की दूरी तय करनी पड़ती है। इसमें समय बरबाद होता है और इसी पहाड़ के कारण आजादी के सालों बाद भी सुविधाएं गेहलौर गाँव तक नहीं पहुँच पाई हैं।
दशरथ मांझी का बाल विवाह फगुनिया के साथ होता है। दशरथ के पिता जमीदार के यहाँ बंधुआ मजदुर हैं। कर्ज न चुका पाने के कारण जमीदार दशरथ को बंधुआ मजदूर बनाने के लिए कहता है। लेकिन साहसी दशरथ उनके चुंगल से बचकर भाग खड़ा होता है। और धनबाद के कोयला खादान में जाकर काम करता है।सात साल बाद जब वह गाँव वापस आता है तब भी उसका गाँव वैसा का वैसा ही है। रास्ते में समाचार पत्र और अन्य गाँव के लोगों से पता चलता की सरकार ने छुआछूत ख़तम कर दिया है। इसलिए गाँव आते ही बिना कुछ सोचे समझे जमीदार का पैर और उसके लडके को गले लगता है। पर ज्योंही जमीदार को पता चलता है कि यह मुसहर दशरथ है उसकी खूब धुनाई होती है। घर जाकर अपने पिता और मित्रों से मिलता है। माँ के मरने के बाद घर में घर में स्त्री की जरुरत होती है। वह पत्नी को विदा कराने के लिए पिता के साथ उसके घर जाता है। लेकिन फगुनिया का पिता विदा करने से माना कर देता है। अंततः उसे फगुनिया को भागकर घर लाना पड़ता है। दशरथ अपनी पत्नी से इतना प्यार करता है कि वह उसके लिए कुछ भी कर सकता है।
एक दिन दशरथ मांझी की पत्नी फगुनिया उसके लिए खाना लेकर पहाड़ चढ़कर जाती है। जहाँ उसका पैर फिसलता है और वह पहाड़ से गिर जाती है। उसे इलाज के लिए वजीरगंज ले जाया जाता है। लेकिन अस्पताल समय से न पहुँच पाने कारण उसकी मृत्यु हो जाती है। दशरथ, पत्नी के मौत का कारण उस पहाड़ को मानता है। वह विशाल पहाड़ के सामने खड़ा होकर बोलता है 'बहुत बड़ा है तु, बहुत अकड़ है तोरा में, अरे भरम है, भरम' और वह हथौड़ा लेकर अकेला ही सुबह से लेकर रात तक पहाड़ में से रास्ता बनाने में जुट जाता है। उसका यह जुनून कभी खत्म नहीं होता। वह कभी नहीं सोचता कि यह काम उसके बस की बात नहीं है। लोग उसे पागल समझते हैं, बच्चे पत्थर मारते हैं, उसके पिता नाराज होते हैं, लेकिन दशरथ इन बातों से बेखबर जुटा रहता है अपने मिशन में। 22 साल लग जाते हैं उसे पहाड़ में से रास्ता बनाने में। इस अन्तराल में उसे तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।  अंततः वह पहाड़ को बौना साबित कर उस पर विजय हासिल कर लेता है।
फिल्म की स्क्रिप्ट केतन मेहता और महेंद्र झाकर ने मिल कर लिखी है। फिल्म में तीन ट्रैक समानांतर चलते हैं। एक तो दशरथ की पहाड़ तोड़ने की प्रेरणास्पद कहानी, जो बताती है कि भगवान भरोसे मत बैठो, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो। दूसरा ट्रैक दशरथ और उसकी पत्नी फगुनिया के प्रेम का अन्तरंग दृश्य। जो केतन मेहता की व्यवसायिक दृष्टि का नतीजा है। तीसरा ट्रैक उस दौर में चल रही राजनीतिक उथल-पुथल को दर्शाता है। मसलन छुआछुत को सरकार खत्म करती है। जमींदार के अत्याचार से मजबूर होकर कुछ मुसहर नक्सली बन जाते हैं। आपातकाल लगता है। पहाड़ से रास्ता निकालने के लिए दशरथ के नाम पर सरकार से जो पैसा मिलता है उसे जमीदार और सरकारी अफसर मिलकर डकार जाते हैं। दशरथ इसकी शिकायत करने के लिए 1300 किलोमीटर दूर पैदल चल कर दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पास जाता है, लेकिन पुलिस उसे भगा देती है। वन विभाग वाले पहाड़ को अपनी संपदा बता कर दशरथ को जेल में डाल देते हैं। ये राजनीतिक हलचल बताती है कि तब भी आम आदमी की नहीं सुनी जाती थी और हालात अब भी सुधरे नहीं हैं। भ्रष्टाचार और गरीबी सिर्फ नारों तक ही सीमित है।
            दशरथ की कहानी में इतनी पकड़ है कि आप पूरी फिल्म आसानी से देख लेते हैं और दशरथ की हिम्मत, मेहनत और जुनून की दाद देते हैं। अखरता है कहानी को कहने का तरीका। निर्देशक केतन मेहता ने कहानी को आगे-पीछे ले जाकर प्रस्तुतिकरण को रोचक बनाना चाहा, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। ये कट्स चुभते हैं। साथ ही दशरथ की प्रेम कहानी के कुछ दृश्य गैर-जरूरी लगते हैं। केतन मेहता प्रतिभाशाली निर्देशक हैं, लेकिन 'मांझी द माउंटन मैन' में उनका काम उनके बनाए गए ऊंचे स्तर से थोड़ा नीचे रहा है, बावजूद इसके उन्होंने बेहतरीन फिल्म बनाई है। अभिनय के क्षेत्र में यह फिल्म बहुत आगे है। एक से बढ़कर एक कलाकार हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी अब हर रोल को यादगार बनाने लगे हैं। चाहे वो बदलापुर का विलेन हो या बजरंगी भाईजान का पत्रकार। मांझी के किरदार में तो वे घुस ही गए हैं। चूंकि नवाजुद्दीन खुद एक छोटे गांव से हैं, इसलिए उन्होंने एक ग्रामीण किरदार की बारीकियां खूब पकड़ी हैं। एक सूखे कुएं वाले दृश्य में और पहाड़ के अन्दर पानी मिलने पर पानी पीना और झाड़ की पत्तियां चबाने के समय उन्होंने कमाल का अभिनय किया है। मांझी के रूप में उनका अभिनय लंबे समय तक याद किया जाएगा।