Monday, 31 August 2015

मर्द और बलात्कार

मर्द और बलात्कार

“मर्द कभी बलात्कार नहीं करते हैं,
माँ की कोख शर्मशार नहीं करते हैं..

मर्द होते तो लड़कियों पर नहीं टूटते,
मर्द होते तो आबरू उनकी नहीं लूटते..

मर्द हमेशा दिलों को जीतता है,
कुचलना नामर्दों की नीचता है…

बेटियां बहन मर्द के साये में पलती हैं,
मर्द की जान माँ की दुवाओं से चलती है..

मर्द नहीं फेकते तेज़ाब उनके शरीर पर,
मर्द प्रेम में मिट जाते हैं अपनी हीर पर..

मर्द उनको देह की मंडियों में नहीं बेचता,
मर्द दहेज़ के लिए उनकी खाल नहीं खेचता..

मर्द बच्चियों के नाजुक बदन से नहीं खेलते,
मर्द बेटियों को बूढों के संग नहीं धकेलते…

निर्भया-कांड के बाद क्या बलात्कार बंद हुए !!
कानून तो बदल गये पर क्या सोच भी बदल गयी !!

सोच बदलना आवश्यक हैं क्यो की सोच बदलेगी,
तो हम बदलेंगे और हम बदलेंगे तभी देश बदलेगा

भगवान की पुकार

जब शिशु माँ के गर्भ में होता है तो वहाँ बहुत छोटी सी जगह होती है, शिशु करवट भी नहीं ले सकता ऐसी जगह होती है और रहता कहाँ है माँ के मल-मूत्र में लिपटा हुआ रहता है और वो भी उलटा लटका होता है, मल- मूत्र में लिपटे हुए पुरे नौ महीने हर मनुष्य रहता है, पैसे वाला बनेगा बाद में गरीब बनेगा बादमें गर्भ में तो सब की दशा बराबर है और शिशु जब दो- तीन महीने का होता है तो ये जो ऊपर का जो स्किन है पर्दा वो नहीं होता है सिर्फ मांस का लोथड़ा होता है और जब माँ कुछ भी नमक-मिर्च खाती है तो सीधे बच्चे को लगता है सोचिए कितना दर्द होता होगा हमे जरा सा कटता है तो कितना दर्द होता है और वहाँ तो सारा कटे के बराबर है जो शिशु नहीं सहन कर पाते हैं वो गर्भ में हीं समाप्त हो जाते है इतने कष्टों वाला है वो गर्भ।
जीव कहता है भगवान मुझे इस नर्क से निकल दो , भगवान कहते हैं मैं तुझे निकाल दूंगा फिर तू मुझे क्या देगा । जीव कहता है, मैं आपको क्या दे सकता हूँ मैं क्या देने लायक हूँ आपको, भगवान कहते हैं नहीं तू दे सकता है जब मैं तुझे मानव बना के भेजू तो ऐसा काम कर के आना जिससे तुझे दुबारा इस मृत्यु-लोक में ना आना पड़े इसलिए मैं तुझे इन्सान बना कर भेज रहा हूँ,
मानव कहता है भगवान मैं जाऊंगा तो भूल जाऊंगा सब माया मुझे पकड़ लेगी, भगवान कहते हैं मैं तुझे याद दिला दूंगा चिंता मत करो,अब आप पूछ सकते है की भगवान ने आपको याद दिलाया हीं नहीं मगर ये बात नहीं है की आपको याद नहीं दिलाया हम जो आपको ये कथा के माध्यम से बता रहे है ये भगवान हीं के प्रेरणा से तो बता रहें है तुम इतने श्रेष्ठ नहीं हो की साक्षात भगवान दर्शन दे,
हम भगवान को दोष नहीं दे सकते की आपने याद नहीं दिलाया अब हमने क्या किया ये याद करने वाली बात है क्या हमने भगवान से किया वादा पूरा किया ?

Saturday, 29 August 2015

रक्षाबंधन और समाज में लड़की की स्थिति !

किसी विषय वस्तु की संवेदनशीलता अगर ज्यादा हो तो, मुश्क़िल होता है बातों को समझना .... मुश्क़िलें तब और बढ़ जाती है जब बात समझ मे आ जाती है।
मेरे साथ भी यही हो रहा है.....
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क्या हमारा समाज बदल नही सकता है ?
यहाँ पर कुछ ख़ास लोगों को जीने का अधिकार है?
अगर नही,तो हम सभी क्यों यहाँ पर किसी का जीवन छीन लेते हैं?
"जिसका अभी जन्म भी नही हुआ है उसकी हत्या "
हत्या करने और करवानें वालों की रूह भी नही काँपता है। जन्म से पहले ही मृत्यु, किसी का हो तो.... सुन कर अज़ीब लगता है .........
यह मौत का खेल भी अज़ीब है....इसके बारे में लिखें तो कैसे लिखे
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मेरे लिए आज यहाँ पर लिखना बहुत ही मुश्क़िल और चुनौतिपूर्ण लग रहा है.....
क्योंकि मारने वाले अपने ही लोग होते हैं...उनके माता-पिता ..अपनी संतान की हत्या ,वह भी भ्रूण अवस्था में ...
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यह कटु सत्य है कि लड़का होने पर उस भ्रूण के  साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होती, किंतु लड़की की इच्छा न होने पर उस भ्रूण से छुटकारा पाने की प्रक्रिया अपनाई जाती है. अब सवाल यह उठता है कि मां उस अजन्मे शिशु को मारने की स्वीकृति कैसे दे देती है? क्या उस बच्ची को जीने का अधिकार नहीं है? उस बेचारी ने कौन सा अपराध किया है? यह कृत्य मानवीय दृष्टि से भी उचित नहीं है...
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गर्भ में पलने वाले बच्चे की सेहत की जाँच के लिए अल्ट्रासाउंड की मदद ली जाती है, ना की उसकी गला घोटने के लिए...
शहरी क्षेत्र के लोग और पढ़े लिखे लोग इस यंत्र का व्यापक उपयोग कन्या भ्रूण हत्या के लिए करते हैं, और कहते है कि हम शिक्षित है इस लिए "हम दो हमारे एक या दो" बोलकर अपने खून से सने हाथ से अपना चेहरा छुपाते है.........।
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कन्या भ्रूण हत्या की कुछ दर्दनाक और अन्जान पहलू, मैं आप सभी के सामने रखता हूँ.......................

माँ के गर्भ में पल रही कन्या की जब हत्या की जाती है तब वह बचने के कितने जतन करती होगी यह माँ से बेहतर कोई नहीं जानता। गर्भ में "माँ मुझे बचा लो" की चीख कोई खयाली पुलाव नहीं है बल्कि एक दर्दनाक हकीकत है.......
गर्भपात के दौरान भ्रूण स्वयं के बचाव का प्रयास करता है। गर्भ में हो रही ये भागदौड़ माँ महसूस भी करती है।
10-12 सप्ताह की कन्या की धड़कन जब 110-130 की गति में चलती है, तब बड़ी चुस्त होती है, लेकिन जैसे ही पहला औज़ार गर्भाशय की दीवार को छूता है तो बच्ची डर से कांपने लगती है और अपने आप में सिकुड़ने लगती है। औज़ार के स्पर्श करने से पहले ही उसे पता लग जाता है कि हमला होने वाला है। वह अपने बचाव के लिए प्रयत्न करती है.......लेकिन खुद को बचाने के लिए अब किसे पुकारे जब अपने ही लोग मार रहे हो, बिना चेहरा-रंग-रूप देखे....... औज़ार का पहला हमला कमर और पैर पर होता है। गाजर-मूली और सब्जी की भांति उसे काट दिया जाता है। कन्या तड़पने लगती है।फिर जब उसकी खोपड़ी को ममोर कर तोड़ा जाता है तो एक मूक चीख के साथ उसका प्राणांत हो जाता है......अकारण दण्ड परिणाम स्वरूप बिना जन्म लिए ही मृत्यु... यह दृश्य हृदय को दहला देता है। इस निर्मम कृत्य से ऐसा लगता है, मानों कलियुग की क्रूर हवा से मां के दिल में करुणा का दरिया सूख गया है.......तभी तो दिन-प्रतिदिन कन्या भ्रूण हत्याओं की संख्या बढ़ रही है....
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डॉक्टर और दंपती के बीच कन्या भ्रूण  हत्या का खेल कुछ इस तरह होता है  कि आप को पढ़ कर आश्चर्य होगा की मानवता का मूल्य कितना गिर गया है और हम हाथ पर हाथ रख कर चुप-चाप लाश बन कर देख रहे हैं.........
अल्ट्रासाउंड के द्वारा भ्रूण की लिंग जाँच में कूट भाषा का प्रयोग करता है ,रिपोर्ट देने के क्रम में:-
1) रिपोर्ट 9 बजे शाम को देना है:-मतलब लड़की गर्भ में है | अंक 9 देखने मे small letter of english "g" के समान है अर्थात girl ....
रिपोर्ट 6 बजे शाम को देना है:-मतलब लड़का गर्भ में है | अंक 6 देखने मे small letter of english "b" के समान है अर्थात boy ...
2) रिपोर्ट MONDAY को देना है:- मतलब गर्भ मे लड़का है। पहला letter M है दिन के नाम मे,अर्थात MALE ...
रिपोर्ट FRIDAY को देना है:- मतलब गर्भ मे लड़की है। पहला letter F है दिन के नाम मे,अर्थात FEMALE ...
3) अल्ट्रासाउंड का रिपोर्ट no. 18 है। मतलब लड़की है गर्भ मे :-क्योंकि लड़की की शादी की उम्र 18 वर्ष होता है....
अल्ट्रासाउंड का रिपोर्ट no. 21 है। मतलब लड़का है गर्भ मे :-क्योंकि लड़का का शादी की उम्र 21वर्ष होता है।
4) कुछ लोग तो और हद कर देते हैं ।
गर्भ मे लड़का हो तो उसे दीवार पर लगे कृष्ण भगवान के फ़ोटो की ओर इसारा किया जाता है ....
गर्भ मे लड़की हो तो उसे दीवार पर लगे राधा के फ़ोटो की ओर इसारा किया जाता है :--मतलब साफ़ है अपनी राधा की हत्या हमसे करवा लीजिए......आज 5000 ₹ ख़र्च कीजिए ,कल दहैज*  में 5 लाख से 50 लाख ₹ तक की बचत कीजिए ..इतने कम दाम में दूसरे जग़ह आप का काम नही करेगा....सहमति मिल जानें पर दोनों ख़ुशी-ख़ुशी हाथ मिलते हैं .......
कहना मैं सिर्फ़ यह चाहता हूँ कि अपने सन्तान की बोली लगते यह घबड़ाते या हिचकते भी नही हैं, लड़की हो तो जन्म से पहले भ्रूण हत्या के लिए...यदि लड़का हो तो उसके शादी के पहले उसे बेचनें के क्रम मे दहैज * के लिएबोली लगते हैं।.....*(दहैज अशुद्ध लिखा गया है कारण आप को पता होगा)
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समाज में लड़कियों की इतनी अवहेलना, इतना तिरस्कार चिंताजनक और अमानवीय है। जिस देश में स्त्री के त्याग और ममता की दुहाई दी जाती हो, उस देश के कन्या के आगमन पर पूरे परिवार में मायूसी और शोक छा जाना बहुत बड़ी विडंबना है। पुत्र कामना के चलते ही लोग अपने घर मे बेटी के जन्म की कामना नही करते हैं.............।
---------------चेतावनी-------------
बार बार गर्भपात से औरतों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।
यह भ्रूण हत्या का सिलसिला इसी रूप में चलता रहा तो भारतीय जनगणना में कन्याओं की घटती संख्या से भारी असंतुलन पैदा हो जाएगा। यदि बदलाव नहीं आया तो आने वाले कुछ वर्षों में ऐसी स्थिति आ जाएगी कि विवाह योग्य लड़कों के लिए लड़कियां नहीं मिलेंगी।
विवाह के लिए अपहरण किया जाएगा,उसकी इज्जत पर हमले होगें, उसे जबरदस्ती एक से पुरूषों की पत्नी बनने पर मजबूर भी किया जायेगा.................।
"प्रसव पुर्व लिंग परिक्षण एंव कन्या भ्रूण हत्या" एक क्रूर अपराध है। इस अपराध,अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने की शुरुआत अपने अपने घर, आस पास की जगहों से होनी चहिए................

~~~~~~~अजन्मी बेटी करे पुकार, मुझको भी दो जीने का अधिकार~~~~~~~
जब जब रक्षाबन्धन आता है..उस मां का दिल भर आता है....राखी ने उसके बेटे की भी कलाई सजाई होती.....काश..! उसने कोख मे ही बेटी ना मरवाई होती.................

"बेटी को गर्भ में मारने वाले परिवार के लड़को को सूनी कलाई मुबारक हो "
आज उस परिवार को पता चलता होगा ...कन्या भ्रूण हत्या कितना मंहगा था.........

बहन हो चाहत न बची ,बेटी जन्मने की हिम्मत न रही ।
नारी को भोगवाद समाज के ठीकेदारो नें, वासनापूर्ती की वस्तु ही बनाया है ।।

Friday, 28 August 2015

अच्छा! एक बात तो बताओ ये ख्याल 'तेजाब' का कहाँ से आया

एक लडकी ने एक लडके का प्यार कबुल नही किया तो लडके ने लडकी के मुँह पर तेजाब फेक दिया तो लडकी ने लडके से चंद पंक्तीयाँ कही आप एक बार इन पंक्तीयो को जरुर पढना

चलो, फेंक दिया सो फेंक दिया....@
अब कसूर भी बता दो मेरा
तुम्हारा इजहार था ,मेरा इन्कार था
बस इतनी सी बात पर, फूंक दिया तुमने चेहरा मेरा...@
गलती शायद मेरी थी, प्यार तुम्हारा देख न सकी
इतना पाक प्यार था कि उसको मैं समझ ना सकी....@
अब अपनी गलती मानती हूँ क्या अब तुम ... अपनाओगे मुझको?
क्या अब अपना ... बनाओगे मुझको?@
क्या अब ... सहलाओगे मेरे चहरे को?
जिन पर अब फफोले हैं...@
मेरी आंखों में आंखें डालकर देखोगे?
जो अब अन्दर धस चुकी हैं जिनकी पलकें सारी जल चुकी हैं चलाओगे अपनी उंगलियाँ मेरे गालों पर?
जिन पर पड़े छालों से अब पानी निकलता है हाँ, शायद तुम कर लोगे....@
तुम्हारा प्यार तो सच्चा है ना?
अच्छा! एक बात तो बताओ ये ख्याल 'तेजाब' का कहाँ से आया
क्या किसी ने तुम्हें बताया?
या जेहन में तुम्हारे खुद ही आया?
अब कैसा महसूस करते हो तुम मुझे जलाकर?
गौरान्वित..???@
या पहले से ज्यादा और भी मर्दाना...???@
तुम्हें पता है, सिर्फ मेरा चेहरा जला है, जिस्म अभी पूरा बाकी है
एक सलाह दूँ!...@
एक तेजाब का तालाब बनवाओ फिर इसमें मुझसे छलाँग लगवाओ जब पूरी जल जाऊँगी मैं फिर शायद तुम्हारा प्यार मुझमें और गहरा और सच्चा होगा....@
एक दुआ है....@
अगले जन्म में मैं तुम्हारी बेटी बनूँ और मुझे तुम जैसा
आशिक फिर मिले शायद तुम फिर समझ पाओगे
तुम्हारी इस हरकत से मुझे और मेरे परिवार को कितना दर्द सहना पड़ा है।...@

अत्याचार का ‘अस्वीकार’ है फूलन की क्रांति-गाथा

 I अत्याचार का ‘अस्वीकार’ है फूलन की क्रांति-गाथा I I

एक ऐसे देश में , जहां बलात्कार उसकी पीडिता के ही खिलाफ उसके दोष सिद्ध करने के तर्कों के साथ और वीभत्स हो जाता रहा है , जहां यौन हिंसा की शिकार आत्महीनता के बोध से भर जाने की अनुकूलता में होती है , और अंततः मौत का चुनाव करती है , फूलन देवी साहस और शौर्य की प्रतीक के रूप में सामने आती हैं - एक जीवित किम्वदंती की तरह. दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका ' टाइम' ने मार्च , 2014 में जहां उन्हें 17 विद्रोही महिलाओं में सूचीबद्ध किया, वहीं इस देश की जनता ने 1996 में उन्हें संसद में अपना प्रतिनिधि बनाया. आज उनके जन्मदिन पर कवि, चित्रकार और पत्रकार गुलजार हुसैन उन्हें याद कर रहे हैं.

...लाल सूजी हुई आंखें यह कहना चाहती हैं कि स्थिति असह्य है। थरथराते होठों पर सारी शिकायतें केंद्रीभूत हो जाती हैं, किंतु स्थितियां नहीं बदलतीं। वास्तव में यह प्रतिक्रियात्मक और नकारात्मक शक्तियों का तूफान है। आंसू जब स्त्री के विद्रोह को व्यक्त करने में असफल होते हैं, तब वह असंगत हिंसा और उन्माद का सहारा लेती है।
( सीमोन द बोउवार के ‘सेकेंड सेक्स’से)

फूलन देवी के विद्रोह को अक्सर ‘हिंसक प्रतिशोध’ या ‘डाकू का बदला’ कह कर हल्का करने का ही प्रयास किया जाता रहा है, लेकिन इसके बावजूद उनकी क्रांति-गाथा नई पीढ़ी को झकझोरती है। दरअसल उनका पूरा संघर्ष ही स्त्री के अस्तित्व की रक्षा के लिए था। उनका सबसे महत्वपूर्ण काम यह था कि उन्होंने ताकतवर पुरुषवादी समूह के अत्याचार को सहते रहने से इनकार कर दिया था। अत्याचार का यह ‘अस्वीकार’ कोई मामूली घटना नहीं है, बल्कि इसे स्त्री की स्वतंत्रता, सुरक्षा और और आत्मसम्मान से जोड़ते हुए एक जरूरी घटनाक्रम के रूप में देखा जाना चाहिए।

फूलन देवी की क्रांति को समझने के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले और बाद के कई दशकों के दौरान कमजोर जाति समूहों की स्त्री की दशा को देखना होगा। विशेष रूप से उत्तर भारत में वंचित जाति समूहों की स्त्रियों की हालत कहीं से भी दबी -छुपी नहीं रही है। पिछड़ी, अत्यंत पिछड़ी, दलित और महादलित जातियों की स्त्रियां मेहनत-मशक्कत करने वाली मानी जाती रही हैं, लेकिन इसके बावजूद उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और कैरियर को लेकर कोई महत्वपूर्ण पहल कभी नहीं हुई है। वे ताकतवर जाति समूहों के पुरुषों से जितनी प्रताड़ित रही हैं, उतनी ही अपनी जाति के मर्दों से भी अपमानित और दमित रही हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी वंचित जाति समूहों की स्त्रियों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि स्थितियां और अधिक चिंताजनक होती चली गर्इं। 60 के दशक (1963) में जब फूलन का जन्म हुआ, तब समाज में वंचित जाति की स्त्रियों की दशा गुलामों की तरह ही थी। अधिकांश स्त्रियां अपने घर के लिए मजदूरी करती थीं, लेकिन इसके बावजूद उनके लिए कहीं से कोई राह फूटती नजर नहीं आती थी। ऐसे ही घुटन और दमन भरे माहौल में उत्तर प्रदेश के एक मल्लाह परिवार में फूलन का जन्म हुआ। उस समय मल्लाह जाति के पुरुष भी ताकतवर जाति समूहों के लोगों के सामने आंखें उठाकर नहीं चल सकते थे, तो भला स्त्रियों की क्या हालत रही होगी इसका अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है। फूलन देवी के बाल्यकाल से लेकर उनके युवा होने और 80 के दशक में चंबल के बीहड़ों में सबसे ऊंचे कद के डाकू होने तक के दौर को सवर्णवादी आक्रामकता का दौर भी कहा जा सकता है। लेकिन इस क्रूरतम दौर के फंदे से मुक्त होने की राह फूलन ने स्वयं ढूंढी थी।

फूलन देवी को एक डाकू कह कर हिंसक मानते हुए उनके महत्व को कम करने वालों को सबसे पहले तो यह जान लेना चाहिए कि कोई भी लड़की कभी भी डाकू बनने का सपना नहीं देखती, बल्कि अन्य बच्चों की तरह बड़े-बड़े काम करने का सपना देखती है। फूलन को डाकू बना देने वाले उस क्रूर समाज की ओर पहले देखिए और सवाल कीजिए, तो बहुत सारे सवालों का जवाब स्वत: मिल जाता है। जो व्यवस्था पहले फूलन के हाथों में हथियार सौंपती है, बाद में वही उसे हिंसक कहकर विलेन भी करार देना चाहती है। सवर्णवादी और पुरुषवादी समाज द्वारा, उसी के हित के लिए बनाई गई क्रूर सामाजिक व्यवस्था को ठीक से समझने की जरूरत है,जो कई दशकों से वंचित समुदायों में अशिक्षित और अस्वस्थ गरीब लड़कियों की स्थिति को बदलने के लिए किसी भी रूप में सक्रिय नहीं दिखाई देता है। उत्तर प्रदेश के जालौन जिले में पूरवा गांव, जो फूलन का गांव था, में मल्लाह जाति की लड़कियां पढ़े या अनपढ़ रहे, इससे किसी भी कथित सभ्य लोगों को मतलब नहीं था। ये लोग अपने आलीशान विवाह समारोहों, लाखों रुपए के दहेज वाली परंपराओं और अपार भूसंपत्ति के गर्व में चूर होकर गरीबों को अपने पैर के नीचे रौंदने को तैयार रहते थे। वे मल्लाह पुरुषों को अपना मजदूर मानते थे और स्त्रियों को चुपचाप काम करते रहने वाली गुलाम। हां, मल्लाह - लड़कियां उनके लिए सॉफ्ट टारगेट थीं। वे उनपर ऐसे झपटते थे, जैसे कोई चालाक शिकारी मुर्गियों पर झपटता है। इस यथास्थिति को तोड़ने के लिए कोई कहां आगे बढ़ रहा था। ऐसे में किसी को तो इस जुल्म सहने से इनकार करना ही था।

फूलन जब बहुत कम उम्र की थी, तब उसके गांव के ऊंची जाति के लोगों ने उससे सामूहिक बलात्कार किया। यह क्षण फूलन के तंगहाल बचपन के दौर का सबसे बड़ा घाव था। इसने उसके मन में विद्रोह की चिनगारियां भर दीं। उसने मूंछे एेंठते ऐसे लोगों के समूह को देखा, जो जाति के आधार पर स्वयं को सबका निर्णायक और मालिक मानता है, लेकिन एक गरीब बच्ची पर भेड़ियों की तरह टूट पड़ता है। फूलन बचपन से ही टूटती और बिखरती लड़की के रूप में बड़ी होती रही। एक ओर लंपट भेड़ियों का समूह था तो दूसरी ओर उसकी उपेक्षा करने वालों का भी समूह था। उसने देखा कि एक साधारण स्त्री होकर जीना उसके लिए आसान नहीं होगा। उसने चुपचाप अन्याय सहने की परंपरा को अपने पैरों से ठोकर मारकर आगे बढ़ने की ठान ली। उसने अन्याय को सहने से इनकार कर दिया। इसी अस्वीकार ने फूलन को विद्रोही बना दिया। उसके विद्रोह की आग में जब गरीब लड़की को मुर्दा तितली समझकर मसलने वाले 22 लोग झुलस गए, तब उसे अत्याचार के विरोध में उभरे प्रतीक के रूप में देखा जाने लगा। टाईम मैगजीन ने विश्व की प्रसिद्ध विद्रोही महिलाओं की सूची में जॉन आॅफ आर्क के साथ उन्हें भी शीर्ष पर जगह दी। टाईम मैगजीन ने ऐसे ही उन्हें बड़ी विद्रोही महिला नहीं माना, बल्कि भारत में जटिल जातीय परिस्थितियों और यहां के ताकतवर समूहों में स्त्री विरोधी मानसिकता को समझते हुए उन्हें एक प्रतीक के तौर पर उभारा। स्त्री विरोधी हिंसा के मामले में अधिक बदनाम देश के लिए फूलन की क्रांति-गाथा को अत्याचार के खिलाफ एक प्रतीक के तौर पर उभारे जाने की यह महत्वपूर्ण कोशिश कही जा सकती है। फूलन के कारण देश के बाहर के बुद्धिजीवियों का ध्यान यहां के ताकतवर लोगों के अन्याय और उनकी पुरुषवादी घृणा की ओर गया। दरअसल, वंचित स्त्रियों की क्रांति का बिगुल फूलन ने बजा दिया था।

एक गरीब मल्लाह की बेटी, जो शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं से कोसों दूर रही और बचपन से ही जिस पर यौन आक्रमण और अत्याचार होते रहे उसके विद्रोही बनने को भारत के इतिहास में एक क्रांतिकारी मोड़ के रूप में दर्ज किया जाएगा। आप ही बताइए, फूलन देवी के विद्रोह को अत्याचार और बलात्कार के खिलाफ एक प्रतीक के तौर पर क्यों नहीं प्रस्तुत किया जाना चाहिए? फूलन के हथियार थाम लेने को केवल उसके जीवन में हुए अत्याचार से ही जोड़ कर मत देखिए। यह सच है कि उसने अपने गांव की गरीब लड़कियों पर टूट पड़ने वाले भेड़ियों का झुंड देखा था। उसने खेलने-पढ़ने की उम्र में तकलीफ और घुटन में तिल -तिल कर नजरें झुकाए लड़कियों को चुपचाप अन्याय सहते देखा था। उसके अंदर पूरे समाज के दबाए गए सपनों का ज्वालामुखी छुपा था, जो अत्याचार की हद के बाद फूट पड़ा। यह अकाट्य सच है कि वंचित जाति समूहों की स्त्रियों पर सर्वणवादियों के अत्याचार की घटनाएं छुपाने की साजिश के बाद भी जाहिर होती रही हैं। बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है, हरियाणा में पिछले एक दशक के दौरान दलित स्त्रियों पर अत्याचार की बहुत अधिक घटनाएं हुई हैं। गोहाना, मिर्चपुर और झज्जर में दलित स्त्रियों पर अत्याचार के कई मामले सामने आए हैं। इनमें एक झकझोरने का मामला हिसार जिले के भगाणा का रहा है। यहां चार लड़कियों से सामूहिक बलात्कार का मामला सामने आने के बाद लोगों में आक्रोश भड़क उठा था। क्या इस आक्रोश में आपने फूलन के उस ‘अस्वीकार’ की अनुगूंज नहीं सुनी? वर्तमान में जब देश में स्त्री विरोधी हिंसा सबसे बड़ी समस्या बनकर सामने खड़ी है, तो यह जरूरी है कि फूलन देवी की क्रांति-गाथा को पाठ्य पुस्तकों में शामिल किया जाए।

- गुलजार हुसैन

Saturday, 22 August 2015

राधा कृष्ण का स्वर्ग मिलन

कृष्ण और राधा स्वर्ग में विचरण करते हुए 
अचानक एक दुसरे के सामने आ गए

विचलित से कृष्ण- 
प्रसन्नचित सी राधा...

कृष्ण सकपकाए, 
राधा मुस्काई

इससे पहले कृष्ण कुछ कहते 
राधा बोल💬 उठी-

"कैसे हो द्वारकाधीश ??"

जो राधा उन्हें कान्हा कान्हा कह के बुलाती थी
उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया

फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया

और बोले राधा से ...

"मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ
तुम तो द्वारकाधीश मत कहो!

आओ बैठते है ....
कुछ मै अपनी कहता हूँ 
कुछ तुम अपनी कहो

सच कहूँ राधा 
जब जब भी तुम्हारी याद आती थी
इन आँखों से आँसुओं की बुँदे निकल आती थी..."

बोली राधा - 
"मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ
ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा
क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे जो तुम याद आते

इन आँखों में सदा तुम रहते थे
कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ
इसलिए रोते भी नहीं थे

प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया
इसका इक आइना दिखाऊं आपको ?

कुछ कडवे सच , प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊ?

कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए
यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुच गए ?

एक ऊँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्रपर भरोसा कर लिया 
और
दसों उँगलियों पर चलने वाळी
बांसुरी को भूल गए ?

कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो ....
जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी
प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली
क्या क्या रंग दिखाने लगी ? 
सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी

कान्हा और द्वारकाधीश में
क्या फर्क होता है बताऊँ ?

कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते
सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता

युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है
युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं
और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं

कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी
दुखी तो रह सकता है
पर किसी को दुःख नहीं देता

आप तो कई कलाओं के स्वामी हो
स्वप्न दूर द्रष्टा हो
गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो

पर आपने क्या निर्णय किया
अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी?
और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया ?

सेना तो आपकी प्रजा थी
राजा तो पालाक होता है
उसका रक्षक होता है

आप जैसा महा ज्ञानी
उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन
आपकी प्रजा को ही मार रहा था
आपनी प्रजा को मरते देख
आपमें करूणा नहीं जगी ?

क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे

आज भी धरती पर जाकर देखो

अपनी द्वारकाधीश वाळी छवि को
ढूंढते रह जाओगे 
हर घर हर मंदिर में
मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे

आज भी मै मानती हूँ

लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं
उनके महत्व की बात करते है

मगर धरती के लोग
युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं, 
प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं

गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है, 
पर आज भी लोग उसके समापन पर " राधे राधे" कहते है"।।